वैसे तो परलोक सिधार चुके पितरों की तृप्ति के लिए पूरे साल पिंडदान होता है और किसी भी पवित्र सरोवर के पास किया जा सकता है. लेकिन पुराणों में पिंडदान के लिए कुछ विशेष स्थान बताए गए हैं. इसमें गया का स्थान सबसे ऊपर है. भगवान श्रीराम भी इस स्थान पर अपने पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ का श्राद्ध करने आए थे. वहीं बाकी स्थानों पर जब पिंडदान किया जाता है, उसमें खासतौर पर इस मंत्र ‘गयायां दत्तमक्षय्यमस्तु’ से संकल्प लिया जाता है.

इस मंत्र का मतलब यह है कि इस पिंडदान को गया में किया गया पिंडदान समझा जाए. गरुड़ पुराण और विष्णु पुराण में पिंडदान को लिए गया को सर्वश्रेष्ठ स्थान माना गया है. कहा गया है कि यहां किया गया पिंडदान पितरों को सहज ही प्राप्त होता है. इसी प्रकार वायु पुराण में कहा गया है कि गया क्षेत्र में ऐसी कोई तिल भर भी जगह नहीं है, जो तीर्थ ना हो. मत्स्य पुराण में तो गया को पितृतीर्थ कह दिया गया. इस तीर्थ के बारे कहा गया है कि गया में जहां-जहां पितरों की स्मृति में पिंडदान होता है, उसे पिंड वेदी की संज्ञा दी गई है.

15 किमी का गया क्षेत्र

करीब एक हजार साल पहले तक यहां कुल पिंड वेदियों की संख्या 365 थी. हालांकि अब इनकी संख्या महज 50 रह गई है. इनमें श्री विष्णुपद, फल्गु नदी और अक्षयवट शामिल है. पुराणों में गया तीर्थ को पांच कोस यानी 15 किलोमीटर का बताया गया है. मान्यता है कि इस 15 किमी के दायरे में किए गए पिंडदान से 101 कुल और सात पीढ़ियों की तृप्ति होती है. ऐसा होने पर वंशजों को पितरों का आशीर्वाद मिलता है. पिंडदान से पितृदोष दूर होते हैं तो वंशजों का कल्याण होता है.

गया के बाहर यहां होता है पिंडदान

उत्तर पौराणिक ग्रंथों में गया के अलावा भी पिंडदान के लिए कुछ स्थान बताए गए हैं. इनमें पहले स्थान पर देवभूमि हरिद्वार में नारायणी शिला का नाम आता है. मान्यता है कि यहां तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसी प्रकार मथुरा में यमुना किनारे बोधिनी तीर्थ, विश्रंती तीर्थ और वायु तीर्थ पर भी पिंडदान किया जाता है. मान्यता है कि यहां तर्पण करने से पितर खुश होते हैं और वंशजों पर कृपा करते हैं. इसी क्रम में तीसरा स्थान महाकाल नगरी उज्जैन में शिप्रा के तट पर पिंडदान का महत्व है. प्रयागराज के त्रिवेणी तट पर भी पिंडदान का विशेष महत्व बताया गया है. मान्यता है कि यहां स्नान और पिंडदान से पितरों के पाप धुल जाते हैं और उन्हें जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है.

अयोध्या और काशी में पिंडदान

इसी क्रम में अयोध्या में सरयू तट पर भात कुंड और काशी में गंगा तट पर भी पितरों के लिए पिंडदान का महत्व बताया गया है. उत्तर पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक यहां पिंडदान ग्रहण करने के बाद पितर भगवान के परम धाम को चले जाते हैं. इसी प्रकार जगन्नाथ पुरी को भी पिंडदान के लिए श्रेष्ठ स्थान माना गया है. इन स्थानों के अलावा राजस्थान में पुष्कर और हरियाणा में कुरुक्षेत्र के ब्रह्मसरोवर में भी पिंडदान का महत्व उत्तर पौराणिक ग्रंथों में मिलता है. कहा तो यह भी गया है कि यदि कोई व्यक्ति ऊपर बताए गए स्थानों पर नहीं जा पा रहा तो वह अपने निकटतम सरोवर या नदी के किनारे भी पिंडदान कर सकता है.

गया में कभी भी किया जा सकता है पिंडदान

वैसे तो पिंडदान के लिए शास्त्रों में कुछ समय निर्धारित किए गए हैं, लेकिन गया में पिंडदान के लिए कोई काल निषिद्ध नहीं है. इस स्थान पर अधिकमास, जन्मदिन, गुरु-शुक्र के अस्त होने पर, गुरु वृहस्पति के सिंह राशि में होने पर पिंडदान किया जा सकता है. जबकि बाकी किसी भी स्थान पर इस समय में पिंडदान और तर्पण वर्जित है. विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में गया में पिंडदान के लिए कुछ विशेष समय का उल्लेख किया गया है. गरुड़ पुराण के मुताबिक जब सूर्य मीन, मेष, कन्या, धनु, कुंभ और मकर में हों तो गया में किया गया पिंडदान अधिक फलदायी होता है. इसी प्रकार हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन के अमावस 16 दिनों तक किया गया पिंडदान भी विशेष भलदायी होता है. इन 16 दिनों को ही मिलाकर पितृपक्ष कहा गया है. साल के बाकी दिनों में तो ज्ञात पितरों को तर्पण किया जाता है, लेकिन पितृ पक्ष में सभी ज्ञात-अज्ञात पितर पिंडदान ग्रहण करते हैं.

क्यों किया जाता है पिंडदान?

पिंडदान का प्रसंग सबसे पहले गरुड़ पुराण में आया है. इसमें मृत्यु के अगले दिन से लेकर 10 दिनों तक पिंडदान की बात कही गई है. कहा जाता है कि शुरू के नौ दिनों तक किए गए पिंडदान से मृतात्मा को एक हाथ के नए शरीर का निर्माण होता है और 10वें दिन के पिंडदान से उसे ताकत मिलती है. इसी ताकत के दम पर वह यमलोक का सफर तय करता है. अब यहां मृतात्मा को पिंडदान का कितना लाभ होगा, इसका निर्धारण पूर्व जन्म में किए गए उसके कर्मों से होता है. यदि व्यक्ति के जीवन काल में अच्छे कर्म होंगे तो उसे सभी पिंड प्राप्त होंगे और वह सहज तरीके से अपने सफर पर निकल सकेगा. वहीं यदि कर्म बुरे होंगे तो यमदूत उसे पिंड हासिल नहीं करने देते. ऐस हालात में कमजोर देह के साथ वह धक्का खाते हुए अपने सफर में आगे बढ़ता है. चूंकि मृतात्मा को 16 नगरों से होते हुए 86 हजार योजन की दूरी 47 दिनों में तय करनी पड़ती है. इसके बाद आत्मा को पुर्नजन्म में 40 दिन का समय लगता है.

कौन किसको कर सकता है पिंडदान?

गरुड़ पुराण में पिंडदान के अधिकार के बारे में बताया गया है. इसमें कहा गया है कि पिंडदान का पहला अधिकार पुत्र या पति को है. यदि पुत्र या पति न हो तो मृतक के भाई या परिवार के अन्य लोग तर्पण कर सकते हैं. यहां उत्तराधिकारी के रूप में पौत्र और प्रपौत्र द्वारा भी पिंडदान का वर्णन मिलता है. अक्सर यहां सवाल उठता है कि पिंडदान बेटियां कर सकती हैं कि नहीं, तो इस सवाल पर गरुड़ पुराण में कहीं अनुमति तो नहीं दी गई है, लेकिन कोई मनाही भी नहीं है. ऐसे में इस संबंध में फैसला लोक व्यवहार के आधार पर लिया जा सकता है.