1984 के लोकसभा चुनाव ने देश के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी की राजनीति दिशा ही बदल दी. दो सीटों पर सिमटी बीजेपी ने एक तरफ जहां अपना नया एजेंडा तैयार किया, वहीं दूसरी तरफ उसने नेतृत्व परिवर्तन का भी फैसला लिया. बीजेपी के इस फैसले का पहला असर अध्यक्ष अटल बिहारी पर पड़ा. हार की समीक्षा रिपोर्ट आने के बाद फरवरी 1986 में बीजेपी के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेई को अपना इस्तीफा देना पड़ा. उनकी जगह लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी की कमान सौंपी गई.
विभाजन के बाद कराची से भारत आए आडवाणी के नाम बीजेपी में सबसे ज्यादा समय तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड है. अपने 3 कार्यकाल में आडवाणी 11 साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहे. इस दौरान जहां उन्होंने पार्टी को फर्श से अर्श तक पहुंचा दिया, वहीं उनके कार्यकाल में पार्टी के भीतर टूट भी हुई.
आडवाणी को कैसे मिली अध्यक्ष की कुर्सी?
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश को छोड़कर विपक्ष हर जगह से साफ हो गई. परिणाम का असर नवगठित भारतीय जनता पार्टी पर भी हुआ. पूरे देश में बीजेपी को सिर्फ 2 सीटों पर जीत मिली. इस परिणाम ने पार्टी के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए. इसकी 2 वजहें थीं-
1. बीजेपी अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेई समेत पार्टी के सभी बड़े नेता चुनाव हार गए.
2. बीजेपी के कई बड़े नेता और कार्यकर्ताओं को सिख-विरोधी दंगे में आरोपी बना दिया गया.
इस हार के बाद संघ से जुड़े संगठनों और बीजेपी के भीतर सुगबुगाहट तेज हो गई. अंदरखाने ही पार्टी की विचारधारा को लेकर विरोध के स्वर उठने लगे. अटल ने मौके की नजाकत को भांपते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की पेशकश कर दी, लेकिन पार्टी ने समीक्षा की बात कहकर उस वक्त उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया.
बीजेपी ने हार की समीक्षा के लिए केएल शर्मा, मुरली मनोहर जोशी, वीके मल्होत्रा, प्रमोद महाजन और मकरंद देसाई की एक हाई लेवल कमेटी बनाई. इस कमेटी ने पूरे देश में घूम-घूमकर बीजेपी में जान फूंकने का फॉर्मूला खोजा. कहा जाता है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद ही आडवाणी को बीजेपी की कमान देने की पटकथा लिखी गई.
इसी बीच देश में शाहबानो केस और बाबरी मस्जिद का मुद्दा तूल पकड़ रहा था. फरवरी 1986 में कोर्ट के एक आदेश के बाद राजीव गांधी की सरकार ने बाबरी का ताला खुलवा दिया. बीजेपी और आरएसएस से जुड़े हिंदू संगठनों को यह डर सताने लगा कि अब अगर और देरी की तो हिंदुत्व का मुद्दा उनके हाथों से निकल जाएगा.
बाबरी स्थित मंदिर का ताला खुलने की घटना के कुछ ही दिन बाद अटल बिहारी का इस्तीफा बीजेपी स्वीकार कर लेती है और पार्टी की कमान उनके सहयोगी रहे लाल कृष्ण आडवाणी मिल जाती है.
आडवाणी ही क्यों बने बीजेपी के अध्यक्ष?
मार्च 1986 में वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने अंग्रेजी पत्रिका इंडिया टुडे में ‘आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी आगे बढ़ना चाहती है’ शीर्षक , से एक लेख लिखा था. गुप्ता इस लेख में कहते हैं- शाहबानो और बाबरी के शोर में राजनीतिक जानकारों ने बीजेपी में हुए हालिया बदलाव पर ध्यान नहीं दिया है. बीजेपी अब अटल की पार्टी नहीं रही. अब वो लाल कृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में आगे बढ़ेगी.
गुप्ता आगे लिखते हैं- अटल के कार्यकाल में आरएसएस और बीजेपी के बीच कम्युनिकेशन गैप था. साथ ही संघ की जो विचारधारा थी, वो अटल बिहारी के कार्यकाल में काफी पीछे छूट गई थी. नए अध्यक्ष को लेकर संघ कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था. इन्हीं सभी सिनेरियो को देखते हुए आडवाणी को बीजेपी की कमान मिली.
1941 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जॉइन करने वाले आडवाणी 1951 में सक्रिय राजनीति में आए. 1957 में आडवाणी राजस्थान में सचिव बनाए गए. 1970 के दशक में वे आरएसएस और जनसंघ के पत्रिकाओं के संपादक भी रहे. 1970 में आडवाणी पहली बार राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए.
1973 में उन्हें जनसंघ की कमान मिली. वे 3 साल तक जनसंघ के अध्यक्ष रहे. आडवाणी जनसंघ के आखिरी अध्यक्ष थे. 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद जब चुनाव हुए तो आडवाणी की भूमिका पर्दे के पीछे रणनीति तैयार करने की थी.
1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो आडवाणी को सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया. 1980 में जनता पार्टी कीसरकार चली गई और उसमें टूट हो गई. इसी दौरान बीजेपी की स्थापना हुई और अटल अध्यक्ष बनाए गए. अटल के कार्यकाल में आडवाणी को राष्ट्रीय महासचिव की कुर्सी मिली. आडवाणी इसके साथ-साथ राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष भी थे.
बीजेपी में जान फूंकने के लिए 3 प्रयोग किए
अध्यक्ष बनने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने बीजेपी में जान फूंकने के लिए 3 नए प्रयोग किए.
1. आडवाणी ने समान विचारधार वाले दलों के साथ गठबंधन फॉर्मूला तैयाार किया. इसका पहला प्रयोग महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ किया गया . 1990 में बीजेपी को इसका फायदा भी मिला. शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन ने कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत लाने से रोक दिया. चुनाव में बीजेपी की सीटें 16 से बढ़कर 42 हो गई.
2. आडवाणी ने मुस्लिम तुष्टिकरण, छद्म धरमनिरपेक्षता का मुद्दा उभारा. उन्होंने बीजेपी के आंतरिक विचारधार को भी बदलने की घोषणा की. अटल के गांधी समाजवाद के बदले आडवाणी ने बीजेपी में हार्ड हिंदुत्व का फॉर्मूला लागू किया. 1989 के चुनाव में बीजेपी को इसका फायदा मिला. पार्टी किंगमेकर की भूमिका में हो गई. 1990 में बीजेपी ने अकेले दम पर राजस्थान में सरकार बना ली.
3. 1989 के परिणाम से उत्साहित आडवाणी ने बाबरी में कारसेवा की घोषणा कर दी. उन्होंने सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक कारसेवा निकालने की घोषणा की. हालांकि, उनकी रथयात्रा बिहार में रोक दी गई. बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार भी कर लिया गया. वे करीब एक महीने तक पुलिस की कस्टडी में रहे.
बीजेपी को बना दी 3 अंकों की पार्टी
लाल कृष्ण आडवाणी के 3 प्रयोग सफल रहे. 1991 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 3 अंकों की पार्टी बन गई. बीजेपी को लोकसभा की 120 सीटों पर जीत मिली. यह पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. आडवाणी अध्यक्षी छोड़ लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाए गए. हालांकि, 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद उन्होंने यह कुर्सी भी छोड़ दी.
1993 में आडवाणी को दूसरी बार बीजेपी की कमान मिली. इस बार वे 1998 तक अध्यक्ष रहे. 1996 में बीजेपी की 13 दिनों के लिए सरकार भी बनी. हालांकि, सरकार के मुखिया आडवाणी के बदले अटल बिहारी वाजपेई बने. इसकी घोषणा भी आडवाणी ने ही की. आडवाणी के अध्यक्ष रहते बीजेपी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान की सत्ता में आई.
पीएम न बनने का दर्द छलक पड़ा था
यह किस्सा 1996 की है. वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी अपने संस्मरण में लिखते हैं. एक रोज में आडवाणी से मिलने उनके घर गया. उस वक्त देश में हवाला और शेयर घोटाले की गूंज थी. हवाला कांड में आडवाणी का भी नाम आया था, जिसकी वजह से वे पद की राजनीति से दूर हो गए थे. वहीं बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री का फेस अटल बिहारी वाजपेई घोषित हो चुके थे.
बातचीत के दौरान आडवाणी का दर्द छलक पड़ा और वे कहने लगे. मैंने जो भी कुछ किया है, उससे पार्टी को तो फायदा हुआ है, लेकिन मेरा नुकसान हो गया. आडवाणी का इशारा पीएम पद की तरफ था. आडवाणी के अध्यक्ष रहते 1998 में बीजेपी की सरकार बनी तो अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने. अटल के बाद बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने.
सबसे पावरफुल अध्यक्ष साबित हुए
आडवाणी अपने 3 कार्यकाल में करीब 11 साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहे. बीजेपी में सबसे लंबे वक्त तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड भी आडवाणी के नाम ही है. 1990 में वरिष्ठ पत्रकार इंद्रजीत बधवार ने आडवाणी को पावरफुल बीजेपी अध्यक्ष बताया था.
अपने लेख में बधवार ने लिखा था- आडवाणी कम बोलते हैं और मृदुभाषी हैं, लेकिन विचारधारा को लेकर कट्टरपंथी हैं. आडवाणी ने अकेले ही दम पर बीजेपी को पुनर्जीवित कर दिया है. उनके प्रयास से राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी अब एक धुरी बन गई है.
कहा जाता है कि 1986 से लेकर 2012 तक बीजेपी के हर फैसले के पीछे आडवाणी ही होते थे. वह फैसला चाहे अटल बिहारी को प्रधानमंत्री चेहरा ऐलान करने की हो, चाहे 2020 दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से न हटाने की हो.
आडवाणी के अध्यक्ष रहते 3 बार टूटी बीजेपी
आडवाणी के अध्यक्ष रहते बीजेपी में पहली टूट साल 1995 में हुई. गुजरात में चुनाव में जीत मिलने के बाद बीजेपी ने केशुभाई पटेल को राज्य की कुर्सी सौंप दी. इससे नाराज शंकर सिंह वाघेला ने पार्टी हाईकमान के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. वाघेला के साथ 46 विधायक थे.
बीजेपी ने डैमेज कंट्रोल के लिए दिल्ली से के शर्मा, प्रमोद महाजन और भैरो सिंह शेखावत को अहमदाबाद भेजा, लेकिन वाघेला ने सीएम पद से नीचे कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. बीजेपी हाईकमान वाघेला के जिद के आगे नहीं झुकी, जिसके बाद 46 विधायकों के साथ वाघेला पार्टी से अलग हो गए.
बीजेपी में टूट का फायदा कांग्रेस ने उठाया और तुरंत वाघेला को समर्थन दे दिया. इस तरह 1996 में शंकर सिंह वाघेला राज्य के मुख्यमंत्री बन गए. दूसरी टूट 2005 में मध्य प्रदेश में हुई.उस वक्त मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री रही उमा भारती ने लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.
उमा भारती का कहना था कि 2003 में मेरे ही बदौलत एमपी में बीजेपी की सरकार आई, लेकिन जब मुझपर संकट आया तो पार्टी ने मुझसे कुर्सी ले ली और अब वापस नहीं दे रही है. दरअसल, 2003 में बीजेपी की सरकार आने के बाद उमा भारती को बीजेपी ने मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन एक साल बाद ही उमा के खिलाफ कर्नाटक की कोर्ट ने एक मामले में वारंट जारी कर दिया, जिसकी वजह से उमा को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा.
उमा जब कानूनी मामलों से बाहर निकलीं तो फिर से सीएम पद की दावेदारी ठोक दी, लेकिन हाईकमान ने उमा की मांग मानने से इनकार कर दिया. नाराज उमा ने खुद की पार्टी बना ली.
तीसरी टूट भी 2005 में ही हुई. साल 2003 में झारखंड के मुख्यमंत्री पद से हटाए गए बाबूलाल मरांडी ने 2004 में आडवाणी के अध्यक्ष बनने के बाद मोर्चा खोल दिया. पार्टी ने अनुशासन के नाम पर मरांडी को पार्टी से बाहर कर दिया, जिसके बाद मरांडी ने झारखंड विकास मोर्चा के नाम से खुद की पार्टी बना ली.
संघ के दबाव में छोड़नी पड़ी अध्यक्ष की कुर्सी
2004 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद लालकृष्ण आडवाणी तीसरी बार पार्टी के अध्यक्ष बने. एक साल तक उनका कार्यकाल ठीक ढंग से चलता रहा. इसी बीच आडवाणी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को धर्म निरपक्षेत बता दिया. आडवाणी के इस बयान का पार्टी के भीतर तीव्र विरोध हुआ.
विरोध की शुरुआत मुरली मनोहर जोशी के बयान से हुई. जोशी ने उस वक्त पत्रकारों से बातचीत में कहा कि जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नहीं माना जा सकता है. संघ ने भी आडवाणी के बयान का विरोध किया. उस वक्त संघ के प्रवक्ता रहे राम माधव ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में आडवाणी के बयान को गलत बताया था.
आडवाणी जब इस मुद्दे पर अपना बयान बदलने को राजी नहीं हुए तो उनसे इस्तीफा मांगा गया. आखिर में 2005 संघ और पार्टी के भारी दबाव के बाद आडवाणी ने इस्तीफा दे दिया. उनकी जगह पर राजनाथ सिंह बीजेपी के अध्यक्ष बनाए गए.