Vedaa Film Review: भारत को भाईचारे और सौहार्द का देश माना जाता है. इस देश की खूबसूरती यही है कि यहां अलग-अलग वर्ग-जाति के लोग एक साथ रहते हैं. ये बात भारत की तारीफ में कही जाती रही है. लेकिन कितनी सच है ये भी देश का हर नागरिक जानता है. आज आधुनिकता के दौर में इंसान तरक्की कर रहा. एडवांस हो रहा. अपडेट हो रहा. लेकिन क्या आज ऐसा कहा जा सकता है कि देश से जातिवाद खत्म हो चुका है. तब तो इस तरक्की को सार्थक माना जाएगा. लेकिन अगर आज भी वेदा जैसी सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म बन रही हैं तो इससे ये जाहिर होता है कि जातिवाद आज भी समाज की कड़वी सच्चाई है. देश आजादी की 78वीं सालगिरह मना रहा है. ऐसे में एक सवाल अगर ईमानदारी से पूछा जाए कि क्या इतने सालों में देश से जातिवाद जड़ से खत्म हो गया क्या? तो इसका जवाब ना ही होगा.

कोई न कोई खबर आज भी हमारे आस-पास सुनने में आती रहती है जिसमें जाति-धर्म के आधार पर किसी का शोषण हुआ हो. या कत्ल हुआ होता है. आज भी लोगों की मानसिकता में जाति-वर्ग घुसे हुए हैं और इससे अभी भी देश आजाद नहीं हो सका है. एक सही दस्तूर पर जॉन अब्रॉहम की फिल्म Vedaa रिलीज हुई है. भले ही इस फिल्म के साथ और भी मूवीज भी आई हैं लेकिन आजादी के दिन जॉन की ये फिल्म वेदा की कहानी के जरिए एक सटीक संदेश देती है.

कहानी

ये कहानी वेदा नाम की एक लड़की की कहानी है जो पिछड़े वर्ग से आती है. बॉक्सिंग सीखना चाहती है. लेकिन उसके इस सफर की शुरुआत इतनी आसान नहीं. एक तो लड़की ऊपर से पिछड़ी जाति की. उसे किसी का सपोर्ट नहीं मिलता है. ऊपर से जो फजीहत झेलनी पड़ती है वो अलग. ये कम था कि वेदा का टकराव हो जाता है गांव के प्रधान जीतेंद्र प्रताप सिंह से. जीतेंद्र एक सधा हुआ पॉलिटिशियन है और पिछली जाति से नफरत करता है. वो पॉलिटिकल बैकग्राउंड से है और आस-पास के गांव में भी उसकी धाक है. बस यही से कहानी में फ्लो आता है और ये टकराव अंत तक जाता है. यहीं पर अभिमन्यू का कैरेक्टर निभाने वाले जॉन अब्रहाम का रोल तय होता है. जीतेंद्र संग इस लड़ाई में वे वेदा के संरक्षक बनते हैं. अभिमन्यू गोरखा रेजिमेंट के जवान हैं जिन्हें सेना से निकाल दिया गया है. वे गांव में ही ट्रेनिंग देते हैं और फिल्म में वेदा की हेल्प करते हैं.

एक तरफ वेदा की जिद और एक तरफ जीतेंद्र की अकड़. इसी के बीच में ये कहानी बुनी गई है. जॉन फिल्म में लीड एक्टर हैं लेकिन फिल्म का मुख्य किरदार वेदा ही है. आज समाज में वेदा जैसी लड़कियों की जरूरत है. वेदा में एक मासूमियत भी है, एक जुनून भी और हिम्मत भी. वेदा का कैरेक्टर फिल्म की जान है और इस बात का सबूत भी कि सच के लिए लड़ने की जो हिम्मत रखता है भले ही वो उस राह पर अकेले ही क्यों न हो, भगवान उसका साथ देता है और उसे कोई पराजित नहीं कर सकता.

कैसी है फिल्म?

फिल्म की कहानी तो जरूरी है और इसपर कई सारी और भी इंटेंस फिल्में बनी हैं. जातिवाद पर बनी नाना पाटेकर की फिल्म दीक्षा याद आती है. उसके अंत के एक मिनट के सीन को आज भी हिस्टोरिक माना जाता है. आयुष्मान खुराना की आर्टिकल 15 भी लोगों की आंखें खोलती है. इस फिल्म के भी कुछ सीन्स आपके जेहन में रह जाते हैं. लेकिन अगर ओवरऑल फिल्म की बात करें तो फिल्म का फर्स्ट हॉफ ज्यादा अपीलिंग है लेकिन क्लैमेक्स के बाद ये फिल्म अपना रिदम खोती नजर आती है. इसके क्लाइमैक्स को और बेहतर किया जा सकता था. अब जॉन की फिल्म है तो एक्शन होगा ही. कहानी है तो इमोशन भी. लेकिन हर फिल्म का एक फ्लो होता है. इसकी स्क्रिप्टिंग के फ्लो में गड़बड़ी रह गई.

अभिनय

इस फिल्म में अभिनय ही सबकुछ है. चाहें शरवरी वाघ को ले लीजिए, चाहें जॉन अब्राहम को या फिर अभिषेक बनर्जी. सभी ने कमाल का काम किया है. वेदा के रोल में शरवरी को और बेहतर डायलॉग्स मिलने चाहिए थे. तब उनकी एक्टिंग पर चार चांद लग जाते. लेकिन वे लगातार बेहतर कर रही हैं और इस कैरेक्टर में भी उन्होंने जान फूंक दी. अभिमन्यू के रोल में जॉन अब्राहम छा गए. पूरी फिल्म में शायद एक सीन भी ऐसा नहीं होगा जब जॉन के चेहरे पर मुस्कुराहट आई हो. उन्होंने एक गंभीर कैरेक्टर पूरी ऑनेस्टी से प्ले किया है. नेगेटिव कैरेक्टर्स में अपनी दावेदारी सिद्ध कर चुके अभिषेक बनर्जी का कैरेक्टर इंटेंस था. वे ऐसे ही कैरेक्टर्स प्ले करते हैं और अपने अभिनय से एक असर छोड़ जाते हैं. इस फिल्म में भी ऐसा ही उन्होंने किया है. आशीष विद्यार्थी भी कैमियो रोल में शूट कर रहे हैं.

कहां हो गई चूक?

वेदा एक सही मौके पर रिलीज की हुई सही फिल्म है. ऐसी फिल्में समाज के लिए जरूरी हैं. हमेशा से बनती भी आई हैं. इस फिल्म में भी एक विशेष मुद्दे को उठाया गया है. इसका फर्स्ट पार्ट काफी इंगेजिंग है. लेकिन फिल्म का दूसरा पार्ट उस हिसब से बन नहीं पाया. एक बढ़िया कहानी की स्क्रिप्टिंग उतनी बढ़िया नजर नहीं आई जिस वजह से फिल्म बीच में जरा भटकती नजर आई. लेकिन उसे एक अच्छे क्लाइमैक्स से कवर किया जा सकता था. मगर ऐसा भी देखने को नहीं मिला. फिल्म के क्लाइमैक्स में जरूरी एलिमेंट मिसिंग रहा. यहां पर जिस सस्पेंस की जरूरत होती है और जैसी एडिंग तैयार होती है वहां जरा ढीलापन नजर आया. ये आपको अंत में मायूस कर सकता है. मगर ओवरऑल ये एक मस्ट वाच फिल्म है.