हर साल अगस्त महीने में जब समूचा देश आजादी का जश्न मना रहा होता है, बलिया के लोग आज भी अपनी ही मस्ती में खोए नजर आते हैं. इसी मस्ती में तो बलिया वालों को गांधी जी की एक अपील से गलतफहमी हो गई. इसका परिणाम ना केवल पूरे देश ने, बल्कि बरतानिया हुकूमत ने भी अगस्त क्रांति के रूप में देखा. बलिया में इस क्रांति के आगाज से बलिया साल 1942 में ही आजाद हो गया था. बिना किसी पूर्व योजना के घटी इस घटना ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया. परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने जिले के नाम पर बागी का ठप्पा लगा दिया. आज भी गजटेयर में बलिया नाम की जगह बागी बलिया शब्द देखा जा सकता है.
बलिया वालों के इसी बागी तेवर की वजह से 70 के दशक में इस जिले की पहचान ‘वीरों की धरती जवानों का देश, बागी बलिया उत्तर प्रदेश’ के रूप में हुई. आज हम बलिया के उसी प्रसंग और मस्ती की चर्चा करने वाले हैं. दरअसल ऋषि मुनियों की धरती बलिया के बागी तेवर आज से नहीं हैं. आज से लाखों साल पहले जब अयोध्या पति भगवान राम ने अश्वमेघ किया तो उन्होंने यज्ञ का घोड़ा छोड़ा था. यह घोड़ा घूमते हुए बलिया के दोआबा में आ गया. यहां महर्षि वाल्मिकी का आश्रम में रह रहे भगवान राम के अपने बेटे लव और कुश ने इस घोड़े को पकड़ लिया और अयोध्या के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया था. धर्म शास्त्रों में बलिया की बगावत का यह पहला उदाहरण है.
भृगु ऋषि ने नारायण की वक्ष पर किया था पद प्रहार
इस मिट्टी के बागी तेवर का दूसरा उदाहरण भृगु ऋषि देते हैं. जब देवताओं को तय करना था कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कौन श्रेष्ठ है, तो इसकी परीक्षा के लिए बलिया के ही बेटे भृगु ऋषि को भेजा गया. उस समय भृगु ऋषि ने भगवान नारायण के वक्ष स्थल पर लात से प्रहार किया था. ये हो गई शास्त्रों की बात, अब आते हैं आधुनिक भारत के इतिहास पर. 1857 में मेरठ क्रांति बलिया के ही वीर सपूत मंगल पांडे ने की थी. इसके बाद बलिया में बाबू जगन्नाथ सिंह ने ब्रिटेन के प्रिंस का ताज अपने जूते के फीते में बांध कर बगावत का ऐलान किया था. फिर तो चाहे असहयोग आंदोलन हो या झंडा सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन, हर जगह बलिया वाले आगे ही नजर आए.
गांधी जी के नारे का अर्थ ही नहीं समझ पाए बलिया वाले
इसी क्रम में वह 8 अगस्त 1942 का दिन था. महात्मा गांधी ने मुंबई की एक रैली में करो या मरो का नारा दिया. उस समय वहां पर पंडित जवाहर लाल नेहरु एवं सरदार पटेल भी थे. यह नारा देते ही अंग्रेज सरकार ने इन सभी को अरेस्ट कर लिया. उस समय बलिया में केवल दो लोगों के पास रेडियो का लाइसेंस था. इसी रेडियो पर 8 अगस्त की रात खबर प्रसारित हुई और नौ अगस्त की सुबह तक यह खबर कानोकान पूरी बलिया में फैल गई. बलिया वाले समझ ही नहीं पाए कि गांधी जी के करो या मरो का मतलब क्या है. वह इस नारे का मंतव्य ढूढ ही रहे थे कि गांधी जी की गिरफ्तारी की खबर आई और बलिया वालों ने आर पार की लड़ाई का फैसला कर लिया.
झाडू बेलन लेकर आजादी के लिए निकली थी महिलाएं
अगले दिन यानी 10 अगस्त को सूर्योदय के साथ ही पूरे बलिया में भारत माता की जय के नारे गूंजने लगे. शहर ही नहीं, दूर दराज के गांवों से लोग लाठी, भाला, हंसिया लेकर जिला मुख्यालय की ओर चल पड़े. यहां की महिलाएं तो हाथों में झाड़ू और बेलन लेकर निकल पड़ी थीं. इन जत्थों का कोई नेता नहीं था. कोई योजना नहीं थी. बावजूद इसके जब 11 अगस्त की सुबह जब जत्थे कलक्ट्रेट पर पहुंचे तो तत्कालीन कलेक्टर जगदीश्वर निगम की हालत खराब हो गई. उन्होंने तुरंत अंग्रेज सरकार को हालात से अवगत कराया. उस समय अंग्रेजों ने कई लोगों को अरेस्ट किया और यातना दी.
कलेक्टर जगदीश्वर निगम ने डर के मारे छोड़ दी कुर्सी
इसी गुस्से में बलिया वालों ने रेलवे स्टेशन और डाक घर पर कब्जा कर तिरंगा फहरा दिया. इसके बाद आगे बढ़ते हुए टाउन हाल पर लगे अंग्रेजी झंडे को उखाड़ कर पैरों तले रौंद डाला. इतने में बलिया स्टेशन पर लखनऊ से चल कर एक ट्रेन पहुंच गई. उस समय छात्रों ने स्टेशन में आग लगाते हुए इस ट्रेन पर कब्जा कर लिया और इसे आजाद एक्सप्रेस के नाम से लखनऊ तक चलाया. फिर आई 19 अगस्त की तारीख. उस दिन बलिया के लोग आखिरी एवं निर्णायक जंग के लिए तैयार थे. इसकी भनक कलेक्टर को लगी तो उनकी पैंट गिली हो गई और उन्होंने तत्काल कुर्सी छोड़ दी. इसके बाद चित्तू पांडे बलिया की कुर्सी पर बैठे. इस प्रकार देश में सबसे पहले जिला बलिया 19 अगस्त 1942 को आजाद हो गया.