आज की तारीख में शायद बहुत बात कम लोगों को मालूम हो कि लोकगायिका शारदा सिन्हा ने कला की दुनिया में शुरुआत शास्त्रीय नृत्य से की थी. उन्हें नृत्यकला से बहुत लगाव था. लोकगायकी के प्रति उनके मन में कोई बड़ा आकर्षण नहीं था. बचपन में उन्हें क्लासिकल डांसर बनने का शौक था. हैरत की बात ये कि साठ के दशक के करीब उन्होंने कठिन मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य सीखा था और परफॉर्म भी करती थीं. पटना में एक बार उनके नृत्य का प्रोग्राम तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के समाने भी हुआ था. तब शारदा जी बहुत छोटी थीं. पटना के भारतीय कला मंदिर के विशेष आयोजन में सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी विशिष्ठ अतिथि की हैसियत से आए थे.
पदम भूषण सम्मान मिलने के बाद शारदा सिन्हा से जब मैंने एक इंटरव्यू किया था, तब उन्होंने बताया था कि नृत्य के अंतर्गत जो भाव भंगिमाओं वाला हिस्सा होता है, उसमें उनका मन बहुत रमता था. नृत्य के दौरान कलाकार जिस तरह से भाव प्रकट करते हैं, उसका उनके मन पर बहुत आकर्षण रहा है. उन्होंने कहा था कि उन्हें नृत्य की भंगिमाएं देखना और उसे खुद पर उतारना बहुत पसंद था. लेकिन जहां तक बात नृत्य से लोकसंगीत की ओर यात्रा की है तो उनके मुताबिक ऐसा कुछ सोच समझ कर नहीं हुआ. यह अपने आप ही हो गया.
मणिपुरी नृत्य से लोकगायकी की ओर
शारदा सिन्हा का मानना था कि नृत्य, गीत-संगीत, वाद्य सब कला का सम्पुट है, इन्हें अलग नहीं कर सकते. मणिपुरी नृत्य बहुत कठिन होता है, जिसके दर्शक कहें या प्रशंसक; बिहार-यूपी में तब नहीं थे. दूसरी तरफ जिस लोकसंस्कृति को हमने जीया था उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति शायद लोकगायकी में होनी थी. मणिपुरी नृत्य में जो भाव भंगिमा सीखी, उसका असर भी हमारी लोकगायकी में निखर कर सामने आया.
शारदा सिन्हा ने अपने उस इंटरव्यू में कहा था अगर मैं नृत्य में अपना करियर बनाती तो शायद जितना सामाजिक संघर्ष मुझे संगीत में करियर बनाने में करना पड़ा उससे कहीं ज्यादा संघर्ष नृत्य की दुनिया में जगह बनाने के लिए करना पड़ता. समाज में लोगों की जो सोच है, उसकी यही सचाई है. साठ-सत्तर के दशक में बिहार की सामंतवादी सामाजिक व्यवस्था कैसी थी, यह किसी से छुपी नहीं है. उस सामंती सोच वाले माहौल में जमींदार परिवार की एक लड़की को बाहर निकलकर मंच पर गाना और उसमें करियर बनाना एक क्रांतिकारी फैसला था.
शास्त्रीय ही नहीं, मजदूरों के भी सुर साधे
शारदा सिन्हा के पिताजी उनको अच्छे और मधुर सुर-संगीत सुनने के लिए प्रेरित करते थे. राग भैरवी, रागदेश या मल्हार जैसे रागों से उनको विशेष प्रेम रहा. लेकिन कलाकारों में शोभा गुर्टू को वो बहुत सुना करती थीं. बेग़म अख्तर की तो वो बहुत बड़ी फैन रही हैं. पं. भीमसेन जोशी को भी सुनना उनको अच्छा लगता था. उनके किराना घराना की गायकी से वह बहुत प्रभावित थीं. पं. जसराज के भजन उनको बहुत ही प्रिय थे. इनके अलावा उस्ताद राशिद खान की ग़ज़लों की वह मुरीद रही हैं.
लेकिन इन शास्त्रीय गायकों के अलावा वो ग्रामीण समाज के खेतिहरों, मजदूरों, किसानों से भी गीत खूब सुना करती थीं. लोकगीत को उन्होंने अपने लोकजीवन में आत्मसात कर लिया था. गांव में अगर कोई भैंस चरवाह भी कुछ गाता था तो उसे बुलाकर वो सुना करती थीं. उसकी गायकी की तारीफ़ करती थी. उन्होंने बातचीत में कहा था- खेतिहरों, किसानों की आवाज़ बहुत प्राकृतिक होती है. वह भैंस पर बैठकर बांसुरी किसी से सीख कर नहीं बजाता, उसने खुद ही रियाज़ करके बजाना सीखा था. तब में ऐसे गवैयों को बुला-बुलाकर सुना करती थी. इन सबका प्रभाव पड़ा.
पशु-पक्षी की आवाज़ों की रहीं शौकीन
चूंकि शारदा सिन्हा का प्रारंभिक जीवन गांव के परिवेश में बीता, उन्होंने उस माहौल को जीया था. गांव में जिस तरह से पशु-पक्षी की आवाज़ें सुनने को मिलती थीं, खेतिहरों, चरवाहों की तानें सुना करती थीं, या शादी-ब्याह या अन्य पर्व त्योहार के मौके पर जो गीत गायन होते हैं उसे बहुत करीब से देखा था. शारदा सिन्हा के लोकगीतों और उनकी गायकी पर उन सबकी झलक देखने को मिलती है. इसका उदाहरण उनका एक मशहूर गीत है- कोयल बिना बगिया ना सोभे राजा… आदि.
हालांकि शारदा सिन्हा का कहना था कि वो हमेशा सुनती थीं तो केवल शास्त्रीय संगीत, सीखती भी थी शास्त्रीय संगीत लेकिन हमारा जीवन चूंकि गांव-समाज के इतना करीब रहा कि वो सारी शास्त्रीयता लोकसंगीत में कंवर्ट होकर बाहर आई जिसे आज लोग शारदा सिन्हा की लोकगायकी कहते हैं.
लोकगीतों का शास्त्रीय संगीत कैसे किया तैयार?
लोकगीतों को शास्त्रीय आधार देना बहुत आसान नहीं. इसमें बड़ी चुनौतियां हैं. लोगों को पसंद आए, सुनने में भी अच्छा लगे और वह शास्त्रीयता की कसौटी पर भी खरी उतरे. शारदा सिन्हा ने इसके लिए लोकगीतों में क्लासिकल के फ्यूज़न का नया प्रयोग किया. दरअसल गांव-घर में शादी, ब्याह या अन्य पर्व-त्योहार पर विशेष अवसरों पर महिलाओं के समूह में गाने की जो परंपरा सालों पुरानी रही है, उसके बारे में उनका मानना था कि उसमें सुर भी हो यह जरूरी नहीं था. आरोह, अवरोह के शास्त्रीय विधान को तवज्जो नहीं दी जाती थी. बस, उल्लास के मौके महिलाएं किसी तरह से उनको गा देती थीं.
वो कहतीं- उन गीतों में कहीं सांस टूट रही होती है कहीं स्वर बिखर रहा होता है. चूंकि मैंने शास्त्रीय संगीत सीखा था. मेरे भैया की शादी हुई थी. और द्वार छेकाई के समय गाना था. घर की महिलाओं ने हंसी मजाक में ही द्वार छेकाई गीत सीख लेने को कहा. लेकिन मेरे लिए बहुत मुश्किल था. क्योंकि जिस तरह से महिलाएं गीत गाती थीं, उसको ज्यों का त्यों गाने में मुझे लगता था कि लोग इन शब्दों को तो ठीक से सुन ही नहीं पा रहे हैं. लोग आखिर इसको समझेंगे कैसे? जिसके बाद मैंने उसे अपने तरीके से गाने की ठानी. उस गीत को शास्त्रीयता के पुट के साथ गाया.
इस तरह से शारदा सिन्हा ने कई लोक परंपरा के गीतों की उनकी मौलिकता को बरकरार रखते हुए एक प्रकार से रिफ़ाइन किया था और उसको प्रेजेंटेबल बनाया था. शास्त्रीयता से संबद्ध हो जाने पर कोई भी गीत अमरता को हासिल कर लेता है. आज शारदा सिन्हा के लोकगीत इसीलिए अमर हैं.