राजनीति भी बड़ी अजीब पेशा है. यहां कब दुश्मन को गले लगाना पड़ जाए, ये पता नहीं होता है. याद करिए सम्राट चौधरी की बीजेपी में आसमान छूती तरक्की को. वो बीजेपी में आयातित नेता हैं लेकिन बीजेपी ने उन्हें प्रदेश का नंबर वन नेता बनाकर नीतीश कुमार को जोरदार चुनौती देने के लिए दमभर प्रयास किया था. लेकिन बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने लोकसभा चुनाव से ऐन वक्त पहले नीतीश की महत्ता को भांपकर नीतीश को एनडीए में लेना ज्यादा हितकारी समझा .

सम्राट चौधरी के लिए ये परिस्थिति असहज करने वाली थी, क्योंकि उनकी बीजेपी में आसमान छूने वाली तरक्की की वजह उनकी नीतीश विरोधी धुर इमेज थी. सम्राट अब मौके की नजाकत को समझते हुए अपनी पहचान बन चुकी पगड़ी को उतारने में ही भलाई समझ रहे हैं. इसलिए राम की शरण के बहाने वो नीतीश की शरण में जाकर उनके साथ सब ठीक करना चाह रहे हैं. सम्राट अब अयोध्या जाकर भगवान राम की शरण में पगड़ी उतारने जा रहे हैं, जिसे कभी उन्होंने नीतीश कुमार को गद्दी से हटाने के लिए धारण की थी.

राजनीति में वादे पर कायम रहना दुर्लभ स्वभाव माना जाता है. इसलिए सम्राट ने राम की शरण में जाकर पगड़ी उतारने का बेहतर विकल्प खोज लिया है. कभी सम्राट को अलग पहचान देने वाली ये पगड़ी, बिहार बीजेपी में उन्हें नंबर वन के पद पर बिठा चुकी है. लेकिन लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद ही नीतीश की एनडीए में बढ़ती महत्ता सम्राट की पगड़ी के लिए अजीब परिस्थितियां पैदा करने लगी है.

नीतीश शरणं गच्छामि ही एकमात्र विकल्प क्यों है ?

यही वजह है कि मौजूदा स्वरूप की राजनीति में नीतीश के बढ़ते कद को देखकर सम्राट अब अपनी पगड़ी उतारने भगवान राम की शरण में अयोध्या जा रहे हैं. भगवान राम की शरण में पगड़ी उतारकर ये मैसेज देना चाह रहे हैं कि उनकी प्राथमिकताओं में अब केंद्र में पीएम मोदी और राज्य में नीतीश कुमार को मजबूत करना सबसे ऊपर है.

जाहिर है कि मौके की नजाकत को समझते हुए चौधरी फिर से बगैर पगड़ी राजनीति करना चाहते हैं, जिससे उनके ऊपर नीतीश विरोधी होने का तमगा हट सके और नीतीश के साथ सामंजस्य के साथ चलने का उनका प्रयास सुलभ हो सके. बीजेपी ने बिहार में जब जब नीतीश के बगैर चलने का प्रयास किया, उसे मुंह की खानी पड़ी है. साल 2015 का विधानसभा चुनाव इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है.

वहीं साल 2024 के लोकसभा चुनाव में नीतीश का साथ बीजेपी को नहीं मिलता तो बीजेपी केंद्र में सरकार बना पाती, इसको लेकर भी नेतृत्व बेहतर आंकलन कर चुका है. लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को अहसास हो चुका था कि नीतीश एनडीए के लिए जरूरी हैं. इसलिए नीतीश को वापस लाने का प्रयास तेज हो चुका था.

इसीलिए सम्राट अपने सुर बदल चुके थे

नीतीश इंडिया से खफा थे. वहीं बीजेपी उनको अपने पक्ष में लाकर इंडिया नैरेटिव को तोड़ने के लिए कदम बढ़ाने को आतुर थी. जाहिर है कि प्रदेश इकाई को जब इस बाबत मीटिंग के लिए दिल्ली बुलाया गया तो बीजेपी की प्रदेश इकाई इसके लिए तैयार नहीं थी. लेकिन प्रदेश इकाई की इच्छा के विपरीत केंद्रीय नेतृत्व ने नीतीश के नेतृत्व को मानने का फैसला प्रदेश नेतृत्व को सुना दिया और प्रदेश नेतृत्व के सामने नीतीश को नेता मानने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं बचा था.

सम्राट चौधरी बदलती हुई बाजी को भांप सुर बदलने शुरू कर चुके थे. उन्हें अहसास हो चुका था कि नीतीश के नंवर वन विरोधी होने का तमगा बिहार में उनके लिए महंगा पड़ सकता है. सम्राट की ये सोच लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद और पुख्ता हो गई. अब उनके सामने प्रदेश की राजनीति में नीतीश शरणं गच्छामि के अलावा दूसरा कोई विकल्प शेष नहीं बचा है. ये अब उनके दिलो दिमाग में बैठ चुका था.

इसीलिए सम्राट बिहार विधानसभा चुनाव नीतीश के नेतृत्व में लड़ने की बात कह अपने सुर बदल चुके थे. जाहिर है कि अब पगड़ी राम की नगरी अयोध्या में उतारें लेकिन इसके बहाने नीतीश के सामने सरेंडर होने का एकमात्र विकल्प सम्राट हाथ से जाया नहीं करेंगे.

सम्राट कौन सा दांव खेलना चाह रहे हैं?

सम्राट प्रदेश की राजनीति में अपनी स्थिती मजबूत रखने के लिए कौन सा दांव खेलना चाह रहे हैं? सम्राट उपमुख्यमंत्री के अलावा प्रदेश अध्यक्ष भी हैं. मगर वो ये बात भली भांति समझते हैं कि प्रदेश की राजनीति में ज्यादा मजबूत बने रहने के लिए एक पद छोड़ना पड़ा तो वो उपमुख्यमंत्री का पद छोड़ना चाह रहे हैं.

दरअसल, सम्राट जानते हैं कि नीतीश के सीएम रहते हुए उपमुख्यमंत्री के पद पर उनके लिए मजबूती से काम करना आसान नहीं रहने वाला है. इसलिए बीजेपी के अध्यक्ष पद पर बने रहकर संगठन से लेकर सरकार में मजबूत बने रहने के लिए प्रदेश अध्यक्ष पद पर काबिज रहना उनके लिए ज्यादा हितकारी होगा. इस प्रयास में सम्राट जुट गए हैं.

जाहिर है कि सम्राट बिहार बीजेपी का अध्यक्ष पद चाहते हैं और राजनीतिक रूप से प्रासंगिक रहने के लिए नीतीश से बेहतर संबंध भी. लेकिन बीजेपी राजनीतिक हितों को देखते हुए जनक राम और संजीव चौरसिया को भी प्रदेश का कमान सौंप सकती है. इसकी सुगबुगाहट भी तेज है. सम्राट जानते हैं कि प्रदेश की कमान संभाले रखने के लिए भी मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में नीतीश का आशीर्वाद जरूरी है. इसलिए सम्राट चौधरी बार-बार इस बात की दुहाई देते हुए सुने जा सकते हैं कि अगला चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा.

सम्राट को नीतीश मजबूरी में जरूरी क्यों दिखने लगे हैं?

नीतीश कुमार के स्वभाव को जानने वाले लोग जानते हैं कि नीतीश की नाराजगी का खामियाजा किस तरह लोगों को बिहार की राजनीति में चुकाना पड़ा है. इनमें जेडीयू के ही पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रामजीवन सिंह, आरजेडी के सुधाकर सिंह और रघुवंश प्रसाद सिंह सरीखे नेता पुख्ता प्रमाण हैं.

पिछले दिनों सम्राट को लेकर नीतीश का रुख तब चर्चा में था जब लोकसभा चुनाव के परिणाम आते ही सम्राट उनसे मिलने उनके आवास पहुंच गए थे लेकिन नीतीश ने उनको डेढ़ घंटे बाद फिर से आने की बात कह एक तरह से साफ मैसेज दे दिया था कि बिहार ही नहीं केंद्र में भी नीतीश एक बार फिर मजबूरी में ही सही लेकिन बेहद जरूरी हैं.

जाहिर है, सम्राट चौधरी के पिता शकुनी चौधरी के साथ समता पार्टी बनाने वाले नीतीश कुमार के लिए सम्राट राजनीतिक अनुभव में भी काफी कम हैं. वहीं वर्तमान परिस्थति भी सम्राट के लिए नीतीश के सामने हथियार डालने को मजबूर कर रही है. यही वजह है कि सम्राट नीतीश को नाराज रखने का जोखिम अब नहीं चाहते हैं.