बिहार की सियासत में 7 महीने बाद फिर से वही सवाल है, क्या नीतीश कुमार पलटी मारेंगे? पहले जेडीयू प्रवक्ता केसी त्यागी की रुखसती और फिर नीतीश की तेजस्वी यादव से मुलाकात ने इस सवाल को और मजबूत कर दिया है. मुलाकात की कहानी भले कुछ और बताई जा रही हो, लेकिन 2022 में भी नीतीश कुमार ने ऐसे ही पलटी मारी थी.

उस वक्त नीतीश और तेजस्वी जाति आधारित सर्वे को लेकर एक-दूसरे से मिले थे और फिर बात इतनी आगे बढ़ गई कि नीतीश ने भारतीय जनता पार्टी का दामन ही छोड़ दिया.

नीतीश के पलटी मारने की चर्चा क्यों?

1. पिछले 10 साल में नीतीश कुमार पांच बार पलटी मार चुके हैं. हर बार पलटी या तो लोकसभा चुनाव से पहले या विधानसभा चुनाव से पहले ही मारते हैं. आखिरी पलटी उन्होंने इसी साल जनवरी में लोकसभा चुनाव से पहले मारी थी. नीतीश इंडिया गठबंधन का दामन छोड़ एनडीए में चले गए थे.

2. नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के बीच पटना में 2 दिन पहले मुलाकात हुई है. कहा जा रहा है कि मुलाकात सूचना आयुक्त की नियुक्ति को लेकर हुई है, लेकिन इसी तरह से 2022 में नीतीश और तेजस्वी की मुलाकात जातीय जनगणना को लेकर हुई थी और फिर दोनों साथ आ गए थे.

3. नीतीश कुमार पॉलिटिकल यूटर्न लेंगे या नहीं, इसकी न तो जेडीयू सिरे से खारिज कर रही है और न ही आरजेडी यह मजबूती से कह रही है कि हम साथ नहीं जाएंगे. बीजेपी भी इस पर चुप है.

4. जाति आधारित सर्वे और उससे मिलने वाले आरक्षण पर हाईकोर्ट की रोक लग चुकी है. मामला सुप्रीम कोर्ट में है, जहां पर बहुत कुछ केंद्र पर निर्भर करेगा. कहा जा रहा है कि केंद्र इस पर ज्यादा एक्टिव नहीं है. क्योंकि, केंद्र की वजह से बिहार को अगर सर्वे आधारित आरक्षण को हरी झंडी मिलती है तो अन्य राज्यों में यह मांग तेज हो जाएगी.

इन चर्चाओं को बल क्यों मिला?

बिहार में मजबूत होता पीके फैक्टर- बिहार में पिछले 6 महीने में प्रशांत किशोर और उनकी रणनीति सुर्खियों में हैं. पीके लगातार नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के वोटबैंक में सेंध लगाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं.

प्रशांत किशोर ने हाल ही में नीतीश के कोर वोटर्स महिला, महादलित और अन्य पिछड़ा वर्ग को साधने के लिए पटना में कार्यक्रम किया है. इसी तरह तेजस्वी की पार्टी के कोर वोटर्स माने जाने वाले मुस्लिम और युवा को भी पीके रिझाने में जुटे हैं.

जेडीयू से जुड़े सूत्रों का कहना है कि पीके जिस तरह से रणनीति अपना रहे हैं, उससे जो भी नुकसान होगा, वो सिर्फ आरजेडी और जेडीयू को होगा. सवर्ण समुदाय के होते हुए भी पीके बीजेपी के सवर्ण मतदाताओं को नहीं साध रहे हैं.

लालू की पार्टी आरजेडी को भी इसी तरह का डर सता रहा है. 2015 और 2020 के चुनाव में आरजेडी बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. 2025 में पार्टी इस रिकॉर्ड को बरकरार रखना चाह रही है.

केंद्र की सत्ता में संपूर्ण हिस्सेदारी नहीं- जेडीयू केंद्र की सत्ता में हिस्सेदार है, लेकिन उसे फिर भी वहां पूर्ण हिस्सेदारी नहीं मिल पाई है. वो भी तब, जब बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं है. वर्तमान में केंद्र की सरकार में जेडीयू को एक केंद्रीय मंत्री और एक राज्यमंत्री का पद मिला है. जेडीयू मंत्री के पास बड़े विभाग भी नहीं है.

सूत्रों के मुताबिक जेडीयू केंद्र के अधीन आने वाले विभिन्न बोर्डों में अपने लोगों की नियुक्ति और राज्यपाल का पद भी चाहती है. जेडीयू की दलील है कि मनमोहन सिंह की यूपीए की सरकार में एनसीपी जैसे दलों को राज्यपाल का पद दिया गया था. 2013 में एनसीपी के श्रीनिवास पाटिल को सिक्किम का राज्यपाल बनाया गया था.

हाल ही में केंद्र ने कई राज्यों के राज्यपाल बदले हैं. इन फेरबदल में सिर्फ बीजेपी से जुड़े लोगों को तरजीह दी गई है.

विधानसभा चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन नहीं- नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू 2015 में आरजेडी के साथ और 2020 में बीजेपी के साथ मिलकर लड़ चुकी है. 2015 में जेडीयू को 71 और 2020 में 43 सीटों पर जीत मिली थी. 2020 में खराब परफॉर्मेंस के लिए नीतीश कुमार की पार्टी ने बीजेपी पर ही निशाना साधा था.

जेडीयू का कहना था कि लोकसभा में तो हमारे वोटर्स बीजेपी की तरफ ट्रांसफर हो जाते हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में बीजेपी के वोटर्स हमें वोट नहीं करते हैं. हालांकि, इन कड़वाहटों को भूलकर 2024 में जेडीयू बीजेपी के साथ ही लड़ी.