पूर्व क्रिकेटर सुरेश सैना के फूफा अशोक कुमार की हत्या में 12 लोगों को उम्र कैद की सजा हुई है. कोर्ट में सजा के ऐलान के साथ ही देश में एक बार फिर से कुख्यात बावरिया गिरोह सुर्खियों में है. इस गिरोह के बदमाश खानाबदोश होते हैं. लूट, रेप और हत्या की वारदातों को अंजाम देने के बाद ये बदमाश घटना स्थल पर पॉटी करते हैं और मौके से फरार हो जाते हैं. कई बार ये अपनी पॉटी करने की आदत की वजह से पकड़े भी जाते हैं. आज इस प्रसंग में इस जनजाति और इनके आपराधिक गिरोह की चर्चा करेंगे.
इस कहानी में बताएंगे कि मूल रूप से राजस्थान मध्य प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों रहने वाले इस जनजाति के लोग, जो कभी सेनानी थे, आज कैसे इतने बड़े अपराधी बन गए. प्रसंग की शुरुआत गुरुग्राम में करीब करीब 10 साल पहले हुई एक घटना से करेंगे. उन दिनों यहां छोटी बच्चियों के साथ रेप की घटनाएं हो रही थीं. पुलिस लगातार मुकदमे तो दर्ज कर रही थी, लेकिन पुलिस को रेपिस्टों का कोई सुराग नहीं मिल रहा था. लगातार कई मामलों की जांच करते हुए पुलिस का ध्यान एक खास पैटर्न पर गया.
पॉटी से गिरोह तक पहुंची थी पुलिस
उस समय मामले की जांच गुरुग्राम के एसीपी क्राइम संदीप कुमार कर रहे थे. मामलों की जांच के दौरान उन्होंने देखा कि हर घटना स्थल के पास पॉटी किया गया है. पुलिस ने इस पॉटी के जरिए मामले की जांच आगे बढ़ाई और एक 18-19 साल के युवक को हिरासत में ले लिया. इन घटनाओं से जुड़े सभी तथ्य इस युवक के खिलाफ थे, लेकिन वह लगातार पुलिस को गुमराह करने की कोशिश कर रहा था. इसके बाद पुलिस ने एक खास तरीका अपनाया और फिर आरोपी ने ना केवल वारदात कबूल ली, बल्कि इस गिरोह की पूरी कथा कहानी खोल कर रख दी.
अमावस्या पूजन के बाद शुरू करते हैं वारदात
बावरिया गिरोह के बदमाश आम तौर पर हर महीने केवल 20 दिन सक्रिय रहते हैं. हिन्दी महीने के हिसाब से देखें तो इस गिरोह के बदमाश कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से लेकर शुक्ल पक्ष की अष्टमी तक आपराधिक वारदातों को अंजाम देते हैं. वहीं ये बदमाश हर साल अपराधों की शुरुआत दिवाली की रात अमावस्या पूजन के बाद करते हैं. दिवाली के बाद यह बदमाश होली तक ज्यादा सक्रिय रहते हैं. दरअसल इन दिनों में सर्दियां पड़ती हैं और लोग अपने घरों में दुबके रहते हैं. ऐसे में यह बदमाश आसानी से वारदात को अंजाम देकर निकल जाते हैं. इसके अलावा सर्दी की वजह से इन्हें भी शॉल-चादर से अपना चेहरा छिपाने में आसानी होती है. ये बदमाश वारदात के लिए निकले समय सगुन और अपशगुन का भी खास ख्याल रखते हैं.
रेलवे स्टेशनों के आसपास ठिकाना
स्वभाव से खानाबदोश बावरिया गिरोह के बदमाश आम तौर पर रेलवे स्टेशनों या अन्य सड़कों के किनारे पॉलीथीन की रेवटी डालकर सपरिवार रहते हैं. ये बदमाश दिन भर घूम कर कूड़ा कचरा बीनते हैं. इनके घरों की महिलाएं फूल एवं मनीहारी के सामान, बनावटी फूल और खिलौने आदि बेचने का काम करती हैं. इसी दौरान ये वारदात के लिए रैकी भी कर लेते हैं और मध्य रात्रि के बाद वारदातों को अंजाम देते हैं. कई बार वारदातों में इन बदमाशों का पूरा परिवार शामिल होता है तो कुछेक बार इस गिरोह के पुरुषों का गिरोह अलग और महिलाओं का गिरोह अलग-अलग वारदातों को अंजाम देता है. मुख्य रूप से इस गिरोह के लोग लूट, चोरी, डकैती की वारदातों को अंजाम देते हैं. इस दौरान विरोध होने पर ये लोग किसी की जान लेने से भी नहीं हिचकते. वारदात के दौरान गिरोह के बदमाश नाबालिग से रेप का भी मौका नहीं छोड़ते.
दक्षिण भारत में भी दिखी दहशत
बावरिया गिरोह का आतंक वैसे तो ज्यादातर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा राजस्थान समेत पूरे उत्तर भारत में दिखता है, लेकिन कई बार दक्षिण भारत के राज्यों में भी इनका खौफ देखा जा चुका है. एक समय तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता की सरकार थी. उन दिनों तमिलनाडु में इस गिरोह के बदमाशों ने ताबड़तोड़ कई वारदातों को अंजाम दिया. इसी दौरान इस गिरोह के बदमाशों ने सीएम जयललिता के बेहद खास विधायक टी.सुदर्शनक की हत्या कर दी.
इस घटना को जयललिता ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया और राजस्थान मूल के आईपीएस सांगाराम जांगिड़ को मामले की जांच सौंप दी. आईपीएस जांगिड़ ने घटना स्थल पर मिले पॉटी और एक राजस्थानी जूती से मामले की जांच करते हुए गिरोह के आधा दर्जन बदमाशों को अरेस्ट किया था. हालांकि उसके बाद भी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और केरल समेत अन्य राज्यों में इस गिरोह के बदमाशों ने कई वारदातों को अंजाम दिया.
पहले सेनानी, अब क्रूर कैसे बन गए बावरिया?
बावरिया समाज के लोगों को गुलामी पसंद नहीं है. अंग्रेजों की गुलामी के दौरान इस समाज के लोगों ने कई बार विद्रोह किया. यह घटना क्रम 1857 की क्रांति से पहले की है. 1857 की क्रांति में भी इस समाज के लोगों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था. नौबत यहां तक आ गई थी कि इस समाज के लोगों को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजों को विशेष कानून क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट (1871) तक बनाना पड़ा था. इस प्रकार अंग्रेजों ने इस पूरे समाज पर आपराधिक जनजाति का ठप्पा लगा दिया था.
आजादी के बाद भी नहीं सुधरे हालात
ऐसी व्यवस्था कर दी कि इस समाज के लोगों को हर दिन नजदीकी थाने में हाजिरी देनी होती थी और इन्हें अपने मुहल्ले से बाहर जाने के लिए भी पुलिस से पूछना होता था. हालात ऐसे बन गए कि इस समाज के लोगों को अपनी जमीन छोड़कर खानाबदोश जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस प्रकार जो बावरिया पहले देश के सेनानी होते थे, वह समय की मार को झेलते हुए खूंखार आपराधिक गिरोह बन गए. 1947 में मिली आजादी के बाद भले ही सरकार ने आपराधिक जनजाति अधिनियम को खत्म कर दिया, लेकिन इस समाज के लोगों की स्थिति में सुधार नहीं हो सका. आज भी ये लोग खानाबदोश ही हैं.